उपन्यास >> न इतो न तस्थौ न इतो न तस्थौअंजनी कुमार ठाकुर
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पारलौकिक शास्त्र, परामनोविज्ञान, वनस्पति-विज्ञान तथा शुद्ध सामान्य विज्ञान को अवलंब बनाकर सरस कथा-संयोजन
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रस्तुत उपन्यास की सबसे बड़ी विशेषता है इसकी विलक्षण रोचकता। इसकी
कथावस्तु प्रेमगाथा को आधार बनाकर रची गई है, किंतु विज्ञान क्षेत्र के
जानकार लेखक ने पारलौकिक शास्त्र, परामनोविज्ञान, वनस्पति-विज्ञान तथा
शुद्ध सामान्य विज्ञान को अवलंब बनाकर ऐसा सरस कथा-संयोजन किया है कि
उपन्यास तिलिस्मी रोचकता से ओत-प्रोत हो गया है। अत्यंत विचित्र घटनाएं भी
पूरी तरह तर्कसंगत और विज्ञान-सम्मत होने के कारण सहज स्वाभाविक तथा
विश्वसनीय लगती हैं। विचित्र साहित्यिक वादों और प्रयोगों से बोझिल
कथा-साहित्य के इस युग में ‘न इतो न तस्थौ’ किसी को
भी बांध
लेने में सफल कृति सिद्ध होगी।
अपनी बात
संस्कृत का एक वाक्य-खंड है—‘न इतो, न
तस्थौ’। इसका
शाब्दिक अर्थ है—न यहां का, न वहां का। मेरे उपन्यास के प्रायः
सभी
पात्र इसी वाक्य-खंड के केंद्र के इर्द-गिर्द चक्कर काटते रहे हैं।
उपन्यास के पात्रों की तरह स्वतः मैं भी असमंजस की स्थिति में इसी
वाक्य-खंड के चारों ओर चक्कर काटता रहा हूं।
इसी सदी के प्रारंभ के बहुत पहले से ही कतिपय लेखक बड़े ही रोचक प्रगतिवादी चरित्र से ओतप्रोत समाज के हर पहलू के विशिष्ट बिंदुओं का चमत्कारिक ढंग से उल्लेख कर चुके हैं। उन महारथियों के बीच मैंने एक सद्योत (जुगनू) की टिमटिमाती रोशनी की-सी हीन-भावना से ग्रसित होकर कुछ लिख बैठने का दुस्साहस किया है। इस पुस्तक का क्या अंजाम होगा, इस आकुल जिज्ञासा ने मुझे भी ‘न इतो, न तस्थौ’ की स्थिति में ला खड़ा किया है। आपके हाथ में यह उपन्यास समर्पित कर मैं बहुत बड़ी चिंता से मुक्त हो रहा हूं। आपका स्वागत या अस्वीकार दोनों ही मेरे लिए ग्रहणीय हैं।
मैं अपने उन मित्रों का हृदय से कृतज्ञ हूं जिनके सहयोग से मैंने यह पुस्तक लिखी है। डॉ. (प्रो.) बहादुर मिश्र, सदानंद ठाकुर एवं श्री सत्यनारायण शाहजी के प्रति मैं विशेष रूप से अनुगृहीत हूं, जिनके उत्साहवर्धन से मैं इसे लिख सका।
इसी सदी के प्रारंभ के बहुत पहले से ही कतिपय लेखक बड़े ही रोचक प्रगतिवादी चरित्र से ओतप्रोत समाज के हर पहलू के विशिष्ट बिंदुओं का चमत्कारिक ढंग से उल्लेख कर चुके हैं। उन महारथियों के बीच मैंने एक सद्योत (जुगनू) की टिमटिमाती रोशनी की-सी हीन-भावना से ग्रसित होकर कुछ लिख बैठने का दुस्साहस किया है। इस पुस्तक का क्या अंजाम होगा, इस आकुल जिज्ञासा ने मुझे भी ‘न इतो, न तस्थौ’ की स्थिति में ला खड़ा किया है। आपके हाथ में यह उपन्यास समर्पित कर मैं बहुत बड़ी चिंता से मुक्त हो रहा हूं। आपका स्वागत या अस्वीकार दोनों ही मेरे लिए ग्रहणीय हैं।
मैं अपने उन मित्रों का हृदय से कृतज्ञ हूं जिनके सहयोग से मैंने यह पुस्तक लिखी है। डॉ. (प्रो.) बहादुर मिश्र, सदानंद ठाकुर एवं श्री सत्यनारायण शाहजी के प्रति मैं विशेष रूप से अनुगृहीत हूं, जिनके उत्साहवर्धन से मैं इसे लिख सका।
अंजनी कुमार ठाकुर
न इतो, न तस्थौ
कई दिनों से एक युवक कलकत्ता की गलियों में भटक रहा था। वह खुद नहीं जानता
था कि इस अनिश्चित भटकन की अंतिम परिणति क्या होगी।
उसके कपड़े मैले हो रहे थे। रूखे घुंघराले बाल लटों में सिमटकर चेहरे पर छा गए थे। इसकी उसे परवाह नहीं थी। इन सबके बावजूद उसके चेहरे पर एक आकर्षक चमक विद्यामान थी।
उसने एक कमरे का दरवाजा खोला। कमरे में प्रवेश कर, बड़ी हिफाजत से कंधे से उतारकर एक झोला कुर्सी की टूटी बांह से लटका दिया। साथ पड़ी दूसरी कुर्सी पर अपने को लगभग पटकते हुए वह मन ही मन बड़बड़ाया-
‘देवकांत, सूद तुम्हारी यही नियति है !’
अचानक उसके होंठों पर हंसी आ गई। इस प्रयास में होंठों पर पड़ी सूखी पपड़ी चरचराकर टूट गई। फटी दरार में रक्त-कण उभर आए। उसने सोचा-मुस्कराने की सही सजा मिल गई।
जो आदमी महीनों से लगभग भूखे पेट इस संसार में सड़ रहा है, उसे मुस्कराने का हक किसने दिया ?
यह उसका पुश्तैनी मकान है। मां की मृत्यु के बाद वह पहली बार यहां आया है।
‘शायद यह मेरा अंतिम भ्रमण है। आज ही किसी वक्त इस शहर को मुझे छोड़ देना है।’ उसने निश्चय कर लिया—‘अब मुझे इस शहर से क्या लेना-देना !’
कुछ देर ठहर जाऊं आज....
घर के कोने-कोने में मां की खुशबू आ रही थी। बेटे की बाट जोहती मां चल बसी। एक नौजवान बेटे के रहते, लावारिश लाश की तरह उसकी मां का क्रिया-कर्म कर दिया गया था।
मां, मुझे माफ करना। मेरी भी यही गति होगी। यह बेमकसद जिंदगी कहीं परदेश में मिट जाएगी। इस घर के किसी कोने-अतरे में यदि तुम्हारा पारलौकिक वजूद है तो देख लो—देवकांत सूद; एम.डी. (अमेरिका), रिसर्च स्कॉलर ऑफ...
उसने सोचना बंद कर दिया। भूख से अंतड़ी ऐंठ रही थी। वह निढाल होकर पड़ गया।
ठीक है !—वह बड़बड़ाया-जीने के लिए कुछ खाना भी जरूरी है। मर जाने से तो प्रो. कीट्स का सपना अधूरा रह जाएगा। मेडिसीन के क्षेत्र में उनकी जलाई जोत मंद नहीं पड़नी चाहिए।
इसी समय अप्रत्याशित रूप से मकान के बाहरी दरवाजे पर दस्तक पड़ी । दरवाजा भीतर से बंद नहीं था।
कौन हो सकता है ? मां का कोई जानकार होगा। दरवाजा खुला देखकर ही दरवाजे पर दस्तक दी होगी। जो कोई होगा, चला जाएगा।
लेकिन दस्तक देने वाला गया नहीं। अब उसकी आहट धीरे-धीरे करीब आने लगी थी। और अंत में जो कमरे में आया, उसे देखकर वह आश्चर्य से किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो गया। देव ने तो उस आगंतुक के सम्मुख होने की कल्पना भी न की थी !
एक बड़ी ही खूबसूरत लड़की कमरे में आ गई थी।
‘‘अर्पणा, तुम !’’ देव के मुँह से इतना ही निकल सका। आश्चर्य से उसकी आँखें खैल गयी थीं।
‘‘क्यों ? किसी मुर्दे को कब्र से निकलते देख लिया जो इतने आश्चर्य से मुझे देख रहे हो !’’
‘‘नहीं, मेरी कल्पना के दायरे में तुम्हारे आगमन की कोई गुंजाइश ही नहीं थी। तुम्हारा आना बिलकुल अप्रत्याशित है, अर्पणा।’’
‘‘देव, तुमने मुझे भीतर आने को तो नहीं कहा...क्या बैठने को भी नहीं कहोगे ?’’ अर्पणा बोली।
‘‘अर्पणा, तुम्हारे बैठने के लिए तो मेरा हृदय ही एक मात्र जगह थी। तुमने कबूल ही नहीं किया। अब तो यह टूटी खाट है। बैठ सको तो बैठ जाओ।’’
अपर्णा ने देव को देखकर ही उसकी स्थिति का अनुमान कर लिया था।
एक वेलकल्चर्ड, एजुकेटेड युवक पागल की तरह, फटे-मैले कपड़ों में, नितांत अकेला बैठा है। क्या यह वही देव है—सारे प्रांत में अव्वल आने वाला ? स्कॉलरशिप-होल्डर देव को एक दिन उसने ही बड़े यत्न से अमेरिका विदा किया था। उस देव और आज के देव में कितना फर्क है !
वह मन ही मन सोच कर दुखी हो रही थी—‘परोक्ष रूप से तो वास्तव में मैं ही उसकी इस हालत के लिए उत्तरदायी हूं।’
‘‘तुम्हारी खबर देर से मिली थी। उस समय मैं अमेरिका में नहीं था।’
अपर्णा को चुप देखकर देव ने कहा।
‘‘क्या तो नाम था...शायद...किशोर मनचंदा ?’’
अर्पणा कुछ बोली नहीं। एकटक देव को देखती रही।
सामान्य-से लगने वाले इस वाक्य में कितनी अंतर्वेदना छिपी है—इसका उसे अहसास था।
‘‘देव, तुम पहले अपनी हुलिया ठीक करो। कुछ खा-पी लो, फिर इत्मीनान से हम लोग बात करेंगे।’’
देव को चुप देखकर अर्पणा फिर बोली, ‘‘पिताजी घर में नहीं हैं। हम लोग एलफिंस्टन में ठहरे हैं। यहां तो अचानक ही आने का प्रोग्राम बन गया था।’’
‘‘तुम दिल्ली में रहती हो न ? सुना है, बड़ा विशाल कारोबार है किशोर साहब का ?’’
‘‘कहां सुना था ? रेडियो पर ब्रॉडकास्ट हुआ था या पेपर में छपा था ?’’
अर्पणा व्यंग्य से हंसकर बोली।
‘‘अब तो तुम तीखे व्यंग्य प्रहार भी करती हो, अर्पणा। कहां से सीखा ?’’
अर्पणा फिर उपहास से ही बोली, ‘‘दिल्ली में एक प्राइवेट स्कूल है, वहीं सिखाया जाता है। तुम भी सीख लेना।’’
देव चुप रहा।
अर्पणा उठ खड़ी हुई। ‘‘देव, तुम मेरे साथ चलो। हम लोग वहीं बातें करेंगे।’’
‘‘किशोर साहब को अच्छा लगेगा ? किस हैसियत से मेरा परिचय कराओगी ?’’
‘‘तुम बहुत बोलने लगे हो। पहले तुम उठो तो...देखो, तुम्हारी हालत कैसी हो रही है !’
‘‘क्यों, मुझे क्या हुआ है ?’’
‘‘तुम्हें जो हुआ है, मैं समझ रही हूं। किशोर की फिक्र तुम मत करो। वे बड़े ही फराख दिल के आदमी हैं। वैसे, वे मेरे और तुम्हारे रिश्ते को जानते भी हैं।’’
‘‘ऐं क्या वे जानते हैं कि मेरा और तुम्हारा, हम प्यार करते थे ?’’
‘‘शादी से पहले मैंने सारी कहानी उन्हें बता दी थी, देव ! जो कुछ भी हुआ वह परिस्थिति के अधीन हुआ। शिकवे-शिकायत की कोई गुंजाइश नहीं।
उठो, अब चलें।’’
‘‘तुम्हें पता कैसे चला कि मैं यहां आया हूं ?’’
उसके कपड़े मैले हो रहे थे। रूखे घुंघराले बाल लटों में सिमटकर चेहरे पर छा गए थे। इसकी उसे परवाह नहीं थी। इन सबके बावजूद उसके चेहरे पर एक आकर्षक चमक विद्यामान थी।
उसने एक कमरे का दरवाजा खोला। कमरे में प्रवेश कर, बड़ी हिफाजत से कंधे से उतारकर एक झोला कुर्सी की टूटी बांह से लटका दिया। साथ पड़ी दूसरी कुर्सी पर अपने को लगभग पटकते हुए वह मन ही मन बड़बड़ाया-
‘देवकांत, सूद तुम्हारी यही नियति है !’
अचानक उसके होंठों पर हंसी आ गई। इस प्रयास में होंठों पर पड़ी सूखी पपड़ी चरचराकर टूट गई। फटी दरार में रक्त-कण उभर आए। उसने सोचा-मुस्कराने की सही सजा मिल गई।
जो आदमी महीनों से लगभग भूखे पेट इस संसार में सड़ रहा है, उसे मुस्कराने का हक किसने दिया ?
यह उसका पुश्तैनी मकान है। मां की मृत्यु के बाद वह पहली बार यहां आया है।
‘शायद यह मेरा अंतिम भ्रमण है। आज ही किसी वक्त इस शहर को मुझे छोड़ देना है।’ उसने निश्चय कर लिया—‘अब मुझे इस शहर से क्या लेना-देना !’
कुछ देर ठहर जाऊं आज....
घर के कोने-कोने में मां की खुशबू आ रही थी। बेटे की बाट जोहती मां चल बसी। एक नौजवान बेटे के रहते, लावारिश लाश की तरह उसकी मां का क्रिया-कर्म कर दिया गया था।
मां, मुझे माफ करना। मेरी भी यही गति होगी। यह बेमकसद जिंदगी कहीं परदेश में मिट जाएगी। इस घर के किसी कोने-अतरे में यदि तुम्हारा पारलौकिक वजूद है तो देख लो—देवकांत सूद; एम.डी. (अमेरिका), रिसर्च स्कॉलर ऑफ...
उसने सोचना बंद कर दिया। भूख से अंतड़ी ऐंठ रही थी। वह निढाल होकर पड़ गया।
ठीक है !—वह बड़बड़ाया-जीने के लिए कुछ खाना भी जरूरी है। मर जाने से तो प्रो. कीट्स का सपना अधूरा रह जाएगा। मेडिसीन के क्षेत्र में उनकी जलाई जोत मंद नहीं पड़नी चाहिए।
इसी समय अप्रत्याशित रूप से मकान के बाहरी दरवाजे पर दस्तक पड़ी । दरवाजा भीतर से बंद नहीं था।
कौन हो सकता है ? मां का कोई जानकार होगा। दरवाजा खुला देखकर ही दरवाजे पर दस्तक दी होगी। जो कोई होगा, चला जाएगा।
लेकिन दस्तक देने वाला गया नहीं। अब उसकी आहट धीरे-धीरे करीब आने लगी थी। और अंत में जो कमरे में आया, उसे देखकर वह आश्चर्य से किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो गया। देव ने तो उस आगंतुक के सम्मुख होने की कल्पना भी न की थी !
एक बड़ी ही खूबसूरत लड़की कमरे में आ गई थी।
‘‘अर्पणा, तुम !’’ देव के मुँह से इतना ही निकल सका। आश्चर्य से उसकी आँखें खैल गयी थीं।
‘‘क्यों ? किसी मुर्दे को कब्र से निकलते देख लिया जो इतने आश्चर्य से मुझे देख रहे हो !’’
‘‘नहीं, मेरी कल्पना के दायरे में तुम्हारे आगमन की कोई गुंजाइश ही नहीं थी। तुम्हारा आना बिलकुल अप्रत्याशित है, अर्पणा।’’
‘‘देव, तुमने मुझे भीतर आने को तो नहीं कहा...क्या बैठने को भी नहीं कहोगे ?’’ अर्पणा बोली।
‘‘अर्पणा, तुम्हारे बैठने के लिए तो मेरा हृदय ही एक मात्र जगह थी। तुमने कबूल ही नहीं किया। अब तो यह टूटी खाट है। बैठ सको तो बैठ जाओ।’’
अपर्णा ने देव को देखकर ही उसकी स्थिति का अनुमान कर लिया था।
एक वेलकल्चर्ड, एजुकेटेड युवक पागल की तरह, फटे-मैले कपड़ों में, नितांत अकेला बैठा है। क्या यह वही देव है—सारे प्रांत में अव्वल आने वाला ? स्कॉलरशिप-होल्डर देव को एक दिन उसने ही बड़े यत्न से अमेरिका विदा किया था। उस देव और आज के देव में कितना फर्क है !
वह मन ही मन सोच कर दुखी हो रही थी—‘परोक्ष रूप से तो वास्तव में मैं ही उसकी इस हालत के लिए उत्तरदायी हूं।’
‘‘तुम्हारी खबर देर से मिली थी। उस समय मैं अमेरिका में नहीं था।’
अपर्णा को चुप देखकर देव ने कहा।
‘‘क्या तो नाम था...शायद...किशोर मनचंदा ?’’
अर्पणा कुछ बोली नहीं। एकटक देव को देखती रही।
सामान्य-से लगने वाले इस वाक्य में कितनी अंतर्वेदना छिपी है—इसका उसे अहसास था।
‘‘देव, तुम पहले अपनी हुलिया ठीक करो। कुछ खा-पी लो, फिर इत्मीनान से हम लोग बात करेंगे।’’
देव को चुप देखकर अर्पणा फिर बोली, ‘‘पिताजी घर में नहीं हैं। हम लोग एलफिंस्टन में ठहरे हैं। यहां तो अचानक ही आने का प्रोग्राम बन गया था।’’
‘‘तुम दिल्ली में रहती हो न ? सुना है, बड़ा विशाल कारोबार है किशोर साहब का ?’’
‘‘कहां सुना था ? रेडियो पर ब्रॉडकास्ट हुआ था या पेपर में छपा था ?’’
अर्पणा व्यंग्य से हंसकर बोली।
‘‘अब तो तुम तीखे व्यंग्य प्रहार भी करती हो, अर्पणा। कहां से सीखा ?’’
अर्पणा फिर उपहास से ही बोली, ‘‘दिल्ली में एक प्राइवेट स्कूल है, वहीं सिखाया जाता है। तुम भी सीख लेना।’’
देव चुप रहा।
अर्पणा उठ खड़ी हुई। ‘‘देव, तुम मेरे साथ चलो। हम लोग वहीं बातें करेंगे।’’
‘‘किशोर साहब को अच्छा लगेगा ? किस हैसियत से मेरा परिचय कराओगी ?’’
‘‘तुम बहुत बोलने लगे हो। पहले तुम उठो तो...देखो, तुम्हारी हालत कैसी हो रही है !’
‘‘क्यों, मुझे क्या हुआ है ?’’
‘‘तुम्हें जो हुआ है, मैं समझ रही हूं। किशोर की फिक्र तुम मत करो। वे बड़े ही फराख दिल के आदमी हैं। वैसे, वे मेरे और तुम्हारे रिश्ते को जानते भी हैं।’’
‘‘ऐं क्या वे जानते हैं कि मेरा और तुम्हारा, हम प्यार करते थे ?’’
‘‘शादी से पहले मैंने सारी कहानी उन्हें बता दी थी, देव ! जो कुछ भी हुआ वह परिस्थिति के अधीन हुआ। शिकवे-शिकायत की कोई गुंजाइश नहीं।
उठो, अब चलें।’’
‘‘तुम्हें पता कैसे चला कि मैं यहां आया हूं ?’’
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लोगों की राय
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